रविवार, 2 मई 2010

बुदापैश्तःसिटी ऑफ स्पा (खनिज स्रोतों का शहर) हिंदी जगत में प्रकाशित

गीता शर्मा--

सुबह-सुबह कविता का फोन आया। वह बाथ (स्नानघर) जाने के लिए पूछ रही थी। मेरे मना करने का तो सवाल ही नहीं था। तुरंत तैयार हो गई। यहाँ के विश्वप्रसिद्ध स्नानघरों की चर्चा यहाँ आने से बहुत पहले ही सुन चुकी थी। रुमेटिक आर्थराइटिस, हृदय रोग, लिवर की बीमारी से लेकर त्वचा-संबंधी अनेक रोगों के लिए इन स्नानघरों का पानी अमृत है, यह जानकारी तो थी ही। पानी से इलाज के लिए हंगरी की ख्याति पूरे विश्व में है। इसीलिए जब रोम-वासियों ने इसे जीता तब सबसे पहले उन्होने डैन्यूब के उस किनारे पर ही कब्ज़ा किया जहाँ इस रासायनिक गर्म पानी के स्रोत हैं। बुदापैश्त शहर में ही इस तरह के पानी के 118 स्रोत हैं जिनसे प्रतिदिन करीब 15.4 मिलियन गैलन गर्म पानी निकलता है।
कविता नें फ्रैंकल लिओ ऊत स्थित लुकाच बाथ में चलने को कहा था। 4 नं की ट्राम लेकर हम फ्रैंकल लिओ के स्टाप पर उतरे और पाँच मिनट पैदल चल कर लुकाच बाथ के भवन पर पहुँच गए। लोहे के बड़े से दरवाज़े को पार करते ही एक छोटा सा लॉन था। अभी वसंत नही आया था इसलिए लॉन में कोई खास रौनक नहीं थी। स्नानघर पहुँचने की उत्सुकता और खुशी के कारण पैर जल्दी-जल्दी सामने दिखाई पड़ रहे पीले भवन की ओर बढ़ रहे थे। एक बड़े गोल दरवाज़े से अंदर जाते ही आस-पास पानी होने का अहसास होने लगा। सीली और गर्म महक हवा में तैर रही थी।
दरवाज़े के पास ही एक बूढ़ी औरत तैराकी-संबधी सामान और कपड़े बेच रही थी। टिकट लेकर हम प्रवेश-द्वार की ओर बढ़े। दरवाज़े पर खड़े वर्दीधारी दरबान ने आत्मीयता से मुस्करा कर कहा— योनापोत किवानो (आपका दिन शुभ हो)। हमने भी उसके अभिवादन का उसी प्रकार उत्तर दिया और अंदर घुस गए। जैसे-जैसे हम अंदर जा रहे थे वैसे-वैसे गंधक की महक गर्म पानी के भाप के साथ और सघन होकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रही थी। शीशे की खिड़कियों वाले लंबे बरामदे को पार कर महिलाओं के लिए बने लॉकर-कक्ष में गए। एक बड़े से इस कमरे में अनेक पतले अलमारी नुमा लॉकर थे। तैराकी के लिए पूरी तरह से तैयार होकर हम मुख्य स्नानागार में आ गए।
लुकाच मूल रूप से तुर्की परंपरा का स्नानघर है, इसे 19वीं शताब्दी में उस समय पुनर्निमित किया गया जब हंगरी में स्पा और जल-उपचार-केन्द्र खोले जाने लगे थे। अंदर बड़े-बड़े खंभों पर टिके ऊँचे गोल गुंबदों के नीचे पाँच छोटे-बड़े ताल थे। इनमें बाईस से लेकर चालीस डिग्री सेल्सियस तक अलग-अलग तापमान का पानी भरा हुआ था। इनकी गहराई अधिक नहीं थी क्योकि ये तरण ताल न होकर प्राकृतिक खनिज-युक्त जल से भरे ऐसे ताल थे जिनमें देर तक बैठ कर इसके औषधीय गुणों का लाभ उठाया जा सकता है। उसी स्थान पर पास ही सौना बाथ (वाष्प-स्नान) के लिए भी कमरा बना हुआ था। पूरे वातावरण में गंधक और पानी की मिली-जुली तीव्र गंध भरी हुई। तीस-बत्तीस तापमान वाले जल में बैठना बहुत सुखद एहसास होता है। बहुत से लोग इन तालों में पानी के अंदर ही किनारे-किनारे बनी बैंचों पर देर तक बैठे रहते हैं। कहा जाता है कि उन्नीस सौ पचास के दशक में यह कलाकारों और बुद्धिजीवियों का प्रिय मिलन-स्थल था। इस स्थान पर पत्थर की अनेक बेंचें बनी हुई है। कहते हैं कि इनका निर्माण पहले के जमाने के उन लोगों ने करवाया था जिनको यहाँ के जल-उपचार से रोगों से मुक्ति मिली थी।
कविता पहले यहाँ अपनी एक हंगेरियन मित्र के साथ आ चुकी थी, अतः मैं उसे अपनी गाइड मान कर उसके पीछे-पीछे चल रही थी। “पहले ताल में चलें या पहले सौना में चलना है?” कविता ने पूछा। “कहीं भी, जहाँ तुम चाहो” मैंने कहा। तय हुआ कि पहले सौना में चलें।
सामने शीशे का बड़ा सा दरवाज़ा था, काफी भारी। उसे ठेल कर अंदर गए तो तीव्र गंध युक्त गर्म वाष्प ने स्वागत किया। उसके आगे एक दरवाज़ा और था। वह मुख्य केबिन में खुला। अंदर और भी गहरी भाप थी। दीवार के साथ दो बैंचें लगी थीं जिन पर कुछ लोग बैठे थे। हम भी खाली जगह देख कर बैठ गए। अंदर की भयंकर गर्मी में पाँच मिनट में ही पसीना आने लगा। गर्मी असहनीय हो गई तो उठ कर बाहर आ गए। बाहर आ कर राहत की साँस ली और गुनगुने ताल में जा कर बैठ गए। ऐसा लग रहा था मानो शरीर के साथ साथ मन भी हल्का हो गया हो। पानी के जादुई प्रभाव का एहसास होने लगा था। यहाँ के पानी में नाइट्रेट, कैल्शियम, मैंग्नीशियम, हाइड्रोकार्बोनेट्स, सल्फेट-क्लोराइड्स, फ्लोरीड, आइरन बहुतायत से है।
करीब दो घंटे बाद हम अंदर के तालों से निकल कर बाहरी तालों पर आ गए। बाहर भी बड़े-बड़े दो ताल बने थे। कविता ने कहा, “चलो अब हम जकूज़ी ताल में चलते हैं वहाँ बहुत मजा आएगा”, लेकिन बाहर निकल कर उसका रास्ता भूल गए। हंगरी में भी अधिकांश योरोपीय देशों की तरह भाषा की परेशानी है। अंग्रेज़ी समझने या बोलने वाले कम ही मिलते हैं। हम बाथ के लंबे गलियारों में काफी देर भटकने के बाद जकूज़ी ताल खोज पाए। इतनी देर में ठंड से हालत खराब हो चुकी थी। ताल के गर्म पानी में घुस कर बहुत अच्छा लगा। एक ओर एक ऊँचे पाइप से तेज़ धार पानी गिर रहा था। पाइप का मुँह चपटा और चौड़ा था जिससे पानी फैल कर गिर रहा था। हम लोग उसके नीचे जा कर खड़े हो गए, पानी की तेज़ धार हमारे कंधे पर ऐसे गिर रही थी जैसे कंधों की मालिश कर रही हो। अब मुझे समझ आया कि लोग इतनी तेज़ धार के नीचे क्यों खड़े हो रहे थे। यह ताल कुछ कुछ डमरू के आकार का था, दोनो किनारे चौड़े तथा बीच में पतला। “चलो अब दूसरी ओर चलते हैं”, कविता ने कहा तो मैं आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसके पीछे-पीछे तालाब के दूसरे किनारे पर आ गई। यहाँ पानी के अंदर बनी सीमेंट की बैंच पर बैठे ही थे कि जगह-जगह से पानी के बुलबुले निकलने लगे। सब के साथ हमने भी बुलबुलों का आनंद लिया। बैंचों के गोल घेरे की बाहरी परिधि के चौड़े गोल घेरे में पानी तेज़ी से घूम रहा था। उसमें जा कर खड़े होने की देर थी कि पानी के तेज़ प्रवाह नें हमें अपने साथ ले लिया और हम बिना प्रयास उस पानी के साथ साथ गोल-गोल चक्कर लगाते रहे। थोड़ी देर बाद यह क्रिया अपने आप बंद हो गई और पानी स्थिर हो गया। मैं मन ही मन दूसरी क्रिया के आरंभ होने का इंतज़ार करने लगी। दूसरे कोने में लंबी कुर्सियों जैसी बैंचे थीं जिन पर अर्धचंद्राकार लोहे के हत्थे लगे थे। हम उस पर अधलेटे से बुलबुलों के शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे।
इन स्नानघरों में तरह-तरह की औषधीय मालिश के द्वारा तो इलाज किया ही जाता है साथ ही मड-बाथ तथा इस जल के सेवन द्वारा भी रोगों का निदान किया जाता है। हमें अब तक काफी देर हो चुकी थी। सामने लगी घड़ी में पाँच बज चुके थे। निश्चय किया कि अब बाहर निकलना चाहिए। शाम भी गहराने लगी थी और पतिदेव का ऑफिस से लौटने का समय हो रहा था। मन अभी नहीं भरा था और देखने की चीज़ें भी रह गईं थीं, लेकिन मन मार कर बाहर निकले। कपड़े बदल कर वहीं लगे ड्रायर से बाल सुखा कर हम दोनों बाहर निकलने के लिए दरवाज़े की ओर बढ़े। बाथ का कार्ड वापस लेते हुए गार्ड ने उसी आत्मीय मुस्कराहट से कहा,” कोसोनेम”(धन्यवाद) ।

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