रविवार, 2 मई 2010

हंगरी में लहराता हिंदी का परचम, सृजनगाथा में प्रकाशित

डॉ. गीता शर्मा--

पूर्वी योरोप के इस छोटे से देश में आजकल भारतीयों की संख्या बहुत अधिक भले ही न हो पर यहाँ के निवासी न केवल भारत से परिचित हैं अपितु भारतीय संस्कृति और सभ्यता के लिए उनके हृदय में बेहद सम्मान का भाव है। भारत-भ्रमण बहुत से हंगरी-निवासियों का सबसे बड़ा स्वप्न है।
तुर्की सुल्तान के दास के रूप में गए ज्योर्जी हुत्ज्सी नामक हंगारी व्यक्ति ने पहली बार भारत –भूमि पर कदम रखा था(सन् 1535)। तब से लेकर आज तक फेरेंस वेरसेज्यी, चोमा-द-कोरोश, सर औरेल स्ताईन, ऑरेल मॉयर, प्रो. यौसेफ श्मिद्त, करोय फियोक, इर्विन बक्ताय जैसे नामों की एक लंबी कड़ी है जिन्होने भारतीय संस्कृति और इतिहास से हंगरी- वासियों को परिचित कराया।
सन्1873 में हंगरी में विश्वविद्यालय के स्तर पर भारोपीय विभाग की स्थापना हो चुकी थी। श्री ऑरेल मॉयर इसके पहले प्रोफेसर थे। इनका प्राचीन भारतीय कानून व्यवस्था पर किया गया काम आज भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रो. मायर के बाद प्रो. यौसेफ स्मिथ ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया। प्रो. स्मिथ ने न केवल शोधपूर्ण कार्य किया अपितु उन्होने मालविकाग्निमित्रम्, मृच्छकटिकम् के साथ पंचतंत्र की अनेक कहानियों का हंगेरियन भाषा में अनुवाद भी किया।
सन् 1920 में राजनैतिक कारणों से भारोपीय विभाग को बंद करना पड़ा। तत्कालीन हंगेरियन विद्वानों में संस्कृत के प्रति रुचि का सबसे बड़ा कारण संभवतः अनुवादों द्वारा संस्कृत की महान कृतियों का यहाँ पहुँचना था। वेदों से लेकर पंचतंत्र तक की बेहद संपन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा ने यूरोपीय विद्वानों को चमत्कृत कर दिया था। दूसरी ओर अपनी स्वतंत्रता के प्रति संघर्ष-रत भारतीय जनता के प्रति हंगरी-वासियों के मन में सहानुभूति का भाव भी था, क्योंकि ये लोग अपने जातीय उत्स का मूल पूर्व में खोजते हैं। यही कारण है कि ओत्वोश लौरेंद विश्वविद्यालय(एल्ते) के भारोपीय अध्ययन विभाग के बंद हो जाने के बाद भी संस्कृत और भारत-विद्या पर स्वतंत्र रूप से काम होता रहा।
हंगरी के कामगार वर्ग द्वारा आज़ादी प्राप्त कर लेने के बाद 1952 में एल्ते विश्वविद्यालय (बुदापैश्त) में फिर से भारोपीय भाषा-विभाग की स्थापना हुई। प्रो. यानोस हरमत्ता ने विभाग के प्रमुख काम प्राचीन भाषाओं (लैटिन,ग्रीक,संस्कृत) को पढ़ाने के साथ-साथ भारतविद्या अध्ययन (इंडोलॉजी) का भी एक संपूर्ण कोर्स खोल दिया।
वैसे तो 1957 के बाद से ही हिंदी पठन-पाठन का काम एल्ते में शुरू हो गया था परंतु इसका समुचित आरंभ डॉ. अर्पाद दैबरैत्सैनी ने किया । हंगरी स्थित भारतीय दूतावास में काम करते हुए उनकी रुचि हिंदी में उत्पन्न हुई और उन्होने स्वाध्याय द्वारा हिंदी ज्ञान प्राप्त किया.। एल्ते विश्वविद्यालय में हिंदी की सही मायने में शिक्षा की व्यवस्था उन्होंने ही की थी।
डॉ. दैबरैत्सैनी ने हिंदी व्याकरण की समस्याओं से संबंधित अनेक पर्चे लिखे । “हिंदी में बलाघात और अनुतान” विषय पर उन्होने शोध-कार्य किया। डॉ. दैबरैत्सैनी ने विश्व साहित्य के एनसाइक्लोपीडिया में आधुनिक भारतीय लेखकों पर लिखा। हिंदी-हंगारी का पहला शब्दकोश तैयार करने का श्रेय भी डॉ. दैब्रत्सैनी को ही जाता है। हंगारी-हिंदी शब्दकोश भारत में हंगरी के पूर्व राजदूत श्री पेतेर कोश ने तैयार किया, जो 1973 में प्रकाशित हुआ।

डॉ. दैबरैत्सैनी के सेवा-निवृत्त होने के बाद डॉ. मारिया नेज्यैशी ने हिंदी पढ़ाने का कार्यभार संभाला। डॉ. मारिया ने आगरा के के. एम. मुंशी विश्वविद्यालय से—मोरिस जिग्मंड और प्रेमचंद का तुलनात्मक अध्ययन—विषय पर शोध किया। डॉ. दैबरैत्सैनी के समय में हिंदी का कोई सुनिश्चित पाठ्यक्रम नहीं था। डॉ. मारिया ने भी शुरू में रूसी और अंग्रेज़ी में उपलब्ध हिंदी-पाठन की पुस्तकों का प्रयोग करना प्रारंभ किया परंतु शीघ्र ही उन्होने हंगारी विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करने का निश्चय कर लिय़ा । यह वह समय था जब हंगरी में हिंदी बोलने वालों की संख्या बहुत ही कम थी (ध्यातव्य है कि आज भी हंगरी में हिंदी बोलने वाले भारतीय लोगों की संख्या अधिक नहीं है)।
1992 में हंगरी में हिंदी-शिक्षण की दिशा में भारत सरकार की ओर से महत्वपूर्ण योगदान मिला। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से हंगरी में हिंदी पढ़ाने के लिए एक अतिथि प्रोफेसर के पद की स्थापना की गई। इस कार्यक्रम के अंतर्गत पहली बार प्रतिष्ठित हिंदी रचनाकार प्रो. असगर वजाहत आए। उन्होने न केवल हिंदी भाषा और आधुनिक हिंदी साहित्य पढ़ाया बल्कि उर्दू की कक्षाएँ भी आरंभ कर दीं। इससे विद्यार्थियों को दोहरा लाभ हुआ। डॉ. वजाहत के बाद डॉ. लक्ष्मण सिंह बिष्ट ,डॉ. रविप्रकाश गुप्त, डॉ. उमाशंकर उपाध्याय इस पद पर आए। संप्रति डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा इस पद पर कार्यरत हैं। सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत आने वाले इन प्राध्यापकों से हंगरी में हिंदी के पठन-पाठन को बहुत सहयोग मिला। इन सभी प्राध्यापकों ने पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में भी अपना योगदान दिया।
संस्कृत से हिंदी में हुए अनुवादों की बात छोड़ कर केवल हिंदी साहित्य के हंगारी अनुवादों की चर्चा करें तो इसकी भी एक समृद्ध परंपरा पाई जाती है। जहाँ मध्यकालीन कवियों में मीराबाई, घनानंद तुलसी दास आदि के काव्यानुवाद प्राप्त होते हैं वहीं सीताकांत महापात्र, पद्मा सचदेव, फैज़, अशोक बाजपेयी, रघुवीर सहाय, उपेंद्र नाथ अश्क, गिरिश कारनाड, भारतीय लोक कथाओं, प्रेमचंद की अनेक कहानियों, उपन्यासों, अज्ञेय, मोहन राकेश, अमृत राय, कमलेश्वर, रेणु, भीष्म साहनी, गिरिराज किशोर, यशपाल, धर्मवीर भारती, मुल्कराज आनंद, मानिक बंदोपाध्याय, बिभूतिभूषण बनर्जी, ए. अनंतमूर्ति, फकीरमोहन सेनापति, कमला मार्कंडेय, खुशवंत सिंह, श्रीकांतवर्मा, अमृता प्रीतम, आर के नारायण, करतार सिंह दुग्गल, असगर वजाहत, राजा प्रोक्टर, राजा राव कांतपुरा, चमन नाहल आदि की कविताओं, कहानियों, एकांकियों, नाटक आदि के अंग्रेजी या हिंदी भाषा से हुए अनुवाद उपलब्ध हैं।
वर्ष 2008-09 के छात्रों ने मारिया नेज्यैशी के निर्देशन में भीष्म साहनी की कहानियों का अनुवाद किया है। महादेवी वर्मा के गद्य में नारी चित्रण तथा मन्नू भंडारी की कहानियों पर भी शोध-पत्र का लेखन हो रहा है।
हंगरी में हिंदी में मौलिक लेखन की कोई परंपरा नहीं है परंतु अभी हाल में एल्ते विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्त हुए भारतीय अतिथि प्रोफेसर डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा ने भारोपीय अध्ययन विभाग के छात्रों के लिए एक भित्ति पत्रिका ‘प्रयास’ का आरंभ किया। इस पत्रिका का प्रारंभ प्रयोग के तौर पर किया गया था और यह सुखद आश्चर्य ही है कि छात्रों ने बड़े उत्साह से इस पत्रिका का स्वागत करते हुए इसमें अपना सहयोग दिया। त्रैमासिक रूप से निकलने वाली इस पत्रिका में छात्रों द्वारा हिंदी में लिखी मौलिक रचनाएँ तथा अनुवाद प्रकाशित किए जाते हैं। इसके चार अंक निकल चुके हैं और भारतीय दूतावास के सहयोग से इसका शीघ्र ही प्रकाशन संभाव्य है।
रोज़गार की दृष्टि से देखें तो हिंदी पढ़ने से विद्यार्थियों को कोई लाभ नहीं होता। यह हिंदी, भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति उनका प्रेम ही है जो वे इस दिशा में अग्रसर होते हैं। हंगरी में एल्ते विश्वविद्यालय के अतिरिक्त पेच के एक विश्वविद्यालय में भी हिंदी पढ़ाई जाती थी । यहाँ डॉ. एवा अरादी हिंदी पढ़ा रही थीं।
बुदापैश्त स्थित भारतीय दूतावास पिछले सोलह वर्षों से हिंदी की कक्षाएँ चला रहा है। इनमें आने वाले हंगेरियन भारत प्रेमियों का आकड़ा कई बार पचास को भी पार कर जाता है। यहाँ पर प्रारंभिक, माध्यमिक और उच्च- तीन स्तरों पर हिंदी पढ़ाई जाती है। इनमें भारतीय संस्कृति से जुड़े विषयों पर व्याख्यान भी आयोजित किए जाते हैं।
अभी तक हमने हिंदी के केवल अकादमिक प्रचार-प्रसार की बात ही की है। कोई भी विषय यदि सिर्फ अकादमिक स्तर पर पढ़ा जाता है तो उसकी लोकप्रियता मात्र एक सीमित दायरे में ही हो पाती है । विशेष रूप से भाषा । हिंदी के साथ यह सुखद बात यह है कि उसको लोकप्रिय बनाने का श्रेय हिंदी सिनेमा को भी जाता है। अन्य योरोपीय देशों की तरह हिंदी सिनेमा हंगरी में भी बहुत लोकप्रिय है। यहाँ तक कि कभी-कभी हंगारी टेलीवीजन में भी हंगारी सबटाइटल्स के साथ हिंदी फिल्में दिखाई जाती हैं। कभी-कभी भारतीय दूतावास भी हिंदी फिल्मों का प्रदर्शन करता है। यह बात अलग है कि हिंदी-सिनेमा-प्रेमी हंगरी-वासियों के लिए ये सारे प्रदर्शन कम पड़ते हैं इसीलिए यहाँ के लोगों ने अपना फिल्म-क्लब बनाया हुआ है। यह क्लब महीने में एक बार हंगारी अनुवाद के साथ किसी लोकप्रिय हिंदी फिल्म का प्रदर्शन करता है। आजकल यह प्रदर्शन एक भारतीय भोजनालय के हॉल में होता है। दर्शकों द्वारा खचाखच भरे इस हॉल में पात्रों के साथ हँसते-रोते इन विदेशियों के साथ फिल्म देखना एक अविस्मरणीय अनुभव होता है। इतना ही नहीं यह क्लब बॉलीवुड नाईट का भी आयोजन महीने में एक बार करता है। इस दिन की प्रतीक्षा करते अनेक हंगेरियन युवा देखे जा सकते हैं। रात भर मुंबइया फिल्मी धुनों पर थिरकते युवक-युवतियाँ हिंदी बोलना चाहे न जानते हों पर हिंदी गानों के माध्यम से हिंदी शब्दों से अवश्य परिचित हो जाते हैं। शायद यही कारण है कि राह चलता कोई हंगारी भारतीय वेशभूषा से आपको पहचान कर अचानक रुक कर हाथ जोड़ कहेगा---नमस्ते । कभी किसी दूकान से सामान खरीदने के बाद रसीद पकड़ते हुए सुनाई पड़ेगा—शुक्री..। हंगरी के हिंदी-प्रेमियों ने---हिंदी बातचीत क्लब --भी बनाया हुआ है। प्रत्येक मंगलवार को किसी हिंदी-प्रेमी के घर या किसी कॉफी हाउस में इसके सदस्य बैठते हैं और तकरीबन दो घंटे ये केवल हिंदी में बातचीत करने की कोशिश करते हैं। अंग्रेज़ीदॉ भारतीयों के लिए यह एक प्रेरणा है।
भारतीय दूतावास द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देखने के लिए भी बड़ी संख्या में हंगरी के लोग आते हैं। दूतावास द्वारा आयोजित दीपावली कार्यक्रम में भाग लेते हुए ,उसमें हिंदी गाने तथा नृत्य प्रस्तुत करते हुए स्थानीय निवासियों को देखकर मन स्वाभाविक रूप से ही अपने देश की संस्कृति के प्रति गर्व से भर जाता है। विश्व हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में न केवल हिंदी के विद्यार्थी अपितु अन्य भारत प्रेमी हंगारी लोग भी बड़ी संख्या में उपस्थित होते हैं। कार्यक्रम में जिस भावप्रवण रूप से ये हिंदी कविताओं का पाठ करते हैं वह निश्चय ही भारतीयों के लिए भी प्रेरक होता है । एल्ते के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत लघु हिंदी नाटिका तो कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण होती है । समय-समय पर भारतीय लोकगीतों और लोकनृत्यों के कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं इनके द्वारा भी प्रकारांतर से हिंदी का ही प्रसार हो रहा है इसके अतिरिक्त योग, आयुर्वेद आदि की बढ़ती हुई लोकप्रयता एक तरह से भारतीय संस्कृति और भाषा की बढ़ती लोकप्रियता का ही परिचायक है।




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